आत्मिक दृष्टि से परमधाम, युगल स्वरूप, तथा अपनी परआतम (आत्मा के मूल तन) को देखना ही चितवनि (ध्यान) है। सामान्य भाषा में इसे ध्यान, साधना, या meditation भी कहते हैं।
सर्वप्रथम सदगुरु श्री देवचन्द्र जी (श्री श्यामा जी) ने चितवनि के मार्ग पर चलकर दिखाया। चितवनि करते समय उन्हें साक्षात्कार भी हुआ। तत्पश्चात् महामति जी (श्री इन्द्रावती जी) ने इस मार्ग को अपनाया तथा अपनी12लौकिक लीला के अन्तिम तीन वर्ष पन्ना जी में चितवनि करके सुन्दरसाथ के लिए भी एक उदाहरण प्रस्तुत किया। उन पर समर्पित ५०० परमहंस सुन्दरसाथ ने भी चितवनि करके भरपूर लाभ उठाया।
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