तारतम वाणी क्या है?

अक्षरातीत परब्रह्म, उनके अखण्ड धाम, व लीला का ज्ञान देने वाली यह ब्रह्मवाणी है । साक्षात् अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के मुखारविन्द से अवतरित होने के कारण इसे श्री मुख वाणी या स्वसं वेद कहते हैं । अन्धकार को चीरकर अखण्ड ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित करने वाली इस विद्या को तारतम (तारतम्य) वाणी भी कहते हैं । इसका एक नाम श्री क़ुल्ज़ुम स्वरूप भी है, जिसे बोलचाल की भाषा में श्री कुलजम स्वरूप कहते हैं ।

श्री कुलजम स्वरूप का ज्ञान इस संसार में विद्यमान अपौरुषेय ग्रन्थ (वेदादि), उनके व्याख्या ग्रन्थ, तथा महापुरुषों की वाणी से भिन्न है । श्रेष्ठतम ग्रन्थ भी अधिक से अधिक ज़िबरील फरिश्ते या अक्षर ब्रह्म की कृपा से बोले गए हैं, जबकि यह वाणी स्वयं युगल स्वरूप अक्षरातीत द्वारा कही गई है । इसमें कहीं भी मानवीय बुद्धि (स्वाप्निक बुद्धि) का प्रवेश नहीं है ।

वाणी मेरे पिऊ की , न्यारी जो संसार । निराकार के पार थे , तिन पार के भी पार ।। (प्रकास हि. ३७/३)

श्री इन्द्रावती जी की आत्मा स्वयं इस वाणी का परिचय देते हुए कहती हैं कि यह वाणी मेरे प्रियतम श्री प्राणनाथ जी ने कही है जो इस संसार से परे का ज्ञान देती है । इस वाणी में निहित ज्ञान निराकार से परे अखण्ड योगमाया, उससे परे अक्षर ब्रह्म, तथा उनसे भी परे अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी का ज्ञान देती है ।

सम्वत् १७१२ में युगल स्वरूप (अक्षरातीत श्री राज जी व उनकी आनन्द अंग श्री श्यामा जी) श्री देवचन्द्र जी के तन को त्यागकर श्री मिहिरराज (आत्मा श्री इन्द्रावती जी) के तन में आकर विराजमान हो गए । तत्पश्चात् ब्रह्मवाणी श्री कुलजम स्वरूप का अवतरण पूर्णब्रह्म अक्षरातीत के श्रीमुख से प्रारम्भ हो गया, जिसे साथ बैठे अन्य सुन्दरसाथ लिखते गए ।

श्री मुख वाणी का अवतरण काल सम्वत् १७१२ से १७५१ तक है । सम्वत् १७१२ से जो वाणी गुप्त रूप से उतरनी प्रारम्भ हुई, उसमें 'मिहिरराज' की छाप है । सम्वत् १७१५ से हब्से में प्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मवाणी का अवतरण प्रारम्भ हुआ, जिसमें 'इन्द्रावती' की छाप है । सम्वत् १७३२ से 'महामति' के नाम से ब्रह्मवाणी उतरनी प्रारम्भ हो गयी ।

श्री कुलजम स्वरूप में कुल १४ ग्रन्थ, ५२७ प्रकरण, व १८७५८ चौपाइयाँ हैं । इस वाणी के प्रारम्भिक चार ग्रन्थों- रास, प्रकास, खटरूती, व कलस में हिन्दू पक्ष का ज्ञान है । सनंध, खुलासा, मारफत सागर, व कयामतनामा में कतेब पक्ष का ज्ञान है तथा खिलवत, परिकरमा, सागर, सिनगार, व सिंधी में परमधाम का ज्ञान है । किरन्तन ग्रन्थ में सभी विषयों का समिश्रण है ।

बिना हिसाबें बोलियां , मिने सकल जहान । सबको सुगम जान के , कहूंगी हिन्दुस्तान ।। (सनंध १/१५)

श्री महामति जी कहती हैं कि इस संसार में बहुत सारी बोलियां (भाषाएं) हैं । परन्तु इनमें हिन्दुस्तानी भाषा को सबसे सरल जानकर इस भाषा में ही अपनी वाणी कहूंगी । यह ज्ञान हिन्दुस्तानी भाषा में ही अवतरित हुआ, जिससे अभिप्राय भारत में बोली जाने वाली प्रादेशिक भाषाओं से है ।

अक्षरातीत श्री राज जी के हृदय में ज्ञान के अनन्त सागर हैं । उनकी एक बूँद महामति जी के धाम-हृदय में आयी, जो सागर का स्वरूप बन गई । ज्ञान के सागर के रूप में यह तारतम वाणी है जो मारिफ़त के ज्ञान का सूर्य है । यह ब्रह्मवाणी सबके हृदय में ब्रह्मज्ञान का उजाला करती है ।